सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

स्त्री

कभी कभी 'मन'
बड़ा व्याकुल हो जाता है,
संशय के बादल, घने
और घने हो जाते हैं,
समझ में नहीं आता,
स्त्री होने का दंभ भरूँ,
'या' अफ़सोस करूँ...

कितना अच्छा हो,
अपने सारे एहसास,
अपने अंतस में समेट लूँ,
और पलकों की कोरों से,
एक आँसूं भी न बहने पाए....

यही तो है,'एक'
स्त्री की गरिमा,
'या शायद'
उसके, महान होने का
खामियाजा भी...

क्यूँ एक पुरुष में
स्त्रियोचित गुण आ जाये,
तो वो ऋषितुल्य हो जाता है,
'वहीँ'
एक स्त्री में पुरुषोचित
गुण आ जाये तो 'वो'
'कुलटा'

विचारों की तीव्रता से,
मस्तिस्क झनझना उठता है,
दिल बैठने लगता है,
डर लगता है
ये भीतर का 'कोलाहाल'
कहीं बाहर न आ जाये,
और मैं भी न कहलाऊं
'कुलटा'.....!!अनु!!

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जब कभी मन उद्वेलित होता है,
'तब'
जी करता है की 'चीखूँ'
जोर से 'चिल्लाऊं'
जार जार रोऊँ ..
'लेकिन फिर'
आड़े आ जाती है
'वही'
स्त्री होने की गरिमा ..
लोग क्या कहेंगे?
पडोसी क्या सोचेंगे?

ठूंश लेती हूँ,
अपना ही दुपट्टा,
अपने मुंह में,
'ताकि'
घुट कर रह जाये
मेरी आवाज़,
मेरे ही गले में...

और घोंट देती हूँ,
अपने ही हाथों
'गला'
अपने 'स्वाभिमान' का.... !!अनु!!


1 टिप्पणी:

सखियों आपके बोलों से ही रोशन होगा आ सखी का जहां... कमेंट मॉडरेशन के कारण हो सकता है कि आपका संदेश कुछ देरी से प्रकाशित हो, धैर्य रखना..