फरगुदिया : स्त्री जीवन और साहित्य
---------------------------...: स्त्री जीवन और साहित्य --------------------------- " 'साहित्य' शब्द का व्यवहार नया नहीं है। बहुत पुराने जमान...
मंगलवार, 10 सितंबर 2013
शनिवार, 7 सितंबर 2013
muktak
कुछ समेट लियें हैं
कुछ अभी बाकी हैं
यादों के जर्जर घरौंदे से
विदा लेना अभी बाकी है ..
कुछ अभी बाकी हैं
यादों के जर्जर घरौंदे से
विदा लेना अभी बाकी है ..
'घर'
दरअसल ..जिस 'घर' की खिड़कियाँ दरवाजे तुम खुला देख रहे हो ... ये संकेत है इस बात का कि अब ये 'घर' तुमसे बेख़ौफ़ हैं ...इस 'घर' के लिए अब तुम एक निरीह सूखे हुए वृक्ष मात्र हो ... अब तो बारिश में भीगकर .. धूप में झुलसकर परत दर परत बिखरने भी लगे हो ... दीमकों ने तुम्हें भीतर से खोखला भी कर दिया है ... हवा का एक हल्का झोंका कभी भी तुम्हें गिरा सकता है ... हलके,खोखले अगर तुम 'घर' पर गिर भी गए तब भी 'घर' की एक ईंट भी नहीं हिलेगी .....
(यूँ ही कुछ गुण-बुन लिया )
(यूँ ही कुछ गुण-बुन लिया )
ghazal
हर पल हर दिन बिखर रहे हो
तन्हाई से गुज़र रहे हो
जिन वादों का दम भरते थे
उन वादों से मुकर रहे हो
दुआ दिया करते थे जिनको
अब उनसे बेखबर रहे हो
ऊंचाई की सीढ़ी पर थे
उस सीढ़ी से उतर रहे हो
थक जाओगे तब लौटोगे
कर अनजाने सफ़र रहे हो
हासिल जो तुमको था शायद
खो अपना वो हुनर रहे हो
जिनकी नज़रों में थे ऊपर
उन नज़रों से उतर रहे हो
- शोभा मिश्रा
तन्हाई से गुज़र रहे हो
जिन वादों का दम भरते थे
उन वादों से मुकर रहे हो
दुआ दिया करते थे जिनको
अब उनसे बेखबर रहे हो
ऊंचाई की सीढ़ी पर थे
उस सीढ़ी से उतर रहे हो
थक जाओगे तब लौटोगे
कर अनजाने सफ़र रहे हो
हासिल जो तुमको था शायद
खो अपना वो हुनर रहे हो
जिनकी नज़रों में थे ऊपर
उन नज़रों से उतर रहे हो
- शोभा मिश्रा
सदस्यता लें
संदेश (Atom)