शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011
बुधवार, 28 दिसंबर 2011
१-अधर नज़दीक थे जब अधरों के , वो पल मुझको ऐसे भाये
चाहा बहुत रोकना दिल को,चाहत दिल की रोक ना पाए !!
२-गया ठहर समय पल भर को, संगम हुआ जो अधरों का
लगा जेठ के मौसम में , शीतल बयार का एक झोका !!
३-आँखे भी कुछ बोला करती ,शब्द कर सके जो न व्यक्त
आकर के कर दो कुछ ऐसा ,नस -नस में लगे दौड़ता रक्त !!
४-स्पर्श किया हल्का सा तुमने ,लगा दहकता मुझको तन
सोयी चाहत जाग उठी और, व्याकुल हो गया अपना मन
५-स्पर्श प्रथम तेरे अधरों का , विस्मृत ना हो पायेगा
याद आयेगा जब भी वो क्षण , खुमार नया फिर छायेगा !!
कुंए में .....१
समय में, कि
कील दिया है हमें
इस समय ने
अब यहाँ
सरसों नहीं फूलती
धरती को छोड़ दिया
यूँ ही उजड़ने के लिए
हवा भी खो बैठी है
अपनी महक
विदेशी परफ्यूम की
गंध में
रात दिन
सीमेंट के बंद डिब्बों में
रेंगते हुए
क्या जान पा रहे हैं
किस साजिश के तहत
डाल दिए गए हैं
किन्हीं कुओं में
रविवार, 25 दिसंबर 2011
प्रेम - आज के परिपेक्ष्य मे
यूँ तो ना गयी वहाँ, कोई खबर.. पर आहों के खामोश असर
पैगाम हुए ......बदनाम हुए ..
यूँ तो ना दिए , कुछ सुख हमको .. पर उनसे जो पहुचें दुख हमको
इनाम हुए ..बदनाम हुए
जब होने लगे ये हाल अपने .. शब रोशन साफ़ खयाल अपने
इबहाम हुए .....बदनाम हुए
इतने गहराई लिए शब्द सेतु ... क्या पढ़ कर अनायास ही यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसे रचने के लिए किस कदर का प्रेम महसूस किया होगा नायिका ने
"प्रेम " जिसे कबीर ने ढाई अक्षर मे खोजने को कहा , और जाने कितनी हजारो कालजयी कृतिया प्रेम पर उतार दी गयी , मगर लगता है शब्द रचना से इसे पूर्ण समेटा ना जा सकेगा कभी । मगर कृष्ण ने इस पर पूरी कृष्ण लीला ही रच दी ,
प्रेम को छु लेने का साहस जो कृष्ण ने किया वो युगो युगो तक कोई पुरुष ना कर पाया कृष्ण को इसीलिए सम्पूर्ण युग पुरुष की संज्ञा से नवाजा गया है । नीति विशेषज्ञ कृष्ण ने प्रेम मे कोई नीति निर्धारित ना की मगर क्या वे राधा की विरह को उतनी गहराई से समझ पाये , कुछ का मानना है नहीं , वे इसे समझते तो राधा को इस तरह विरह के जंगल मे झुलसने ना देते । मगर कुछ इस प्रेम को देह के परे मान कर राधा की विरह बेला को भी कृष्ण लीला मे समाहित कर गए ।
मगर क्या किसी ने सोचा है आज भी हजारो ,लाखो नारिया अपने जीवन काल मे राधा स्वरूप को जी रही है , चाहे वो पत्नी रूप मे है या प्रेमिका ... प्रेम तो दोनों करती है अपने नायक से ... तभी तो जहा रिश्ते मे प्रेम है वहा आज भी कृष्ण और राधा स्वरूप आमने सामने आते है , तब आज भी हर स्त्री पुरुष बंधन अपनी एक अलग कहानी रचता है ,अत जहा प्रेम है वहा वेदना है जहा वेदना है वहा पहले दुख , फिर तकलीफ और फिर विरह घर बनाते जाते है , इसीलिए जहा हर नारी को उदासी के उस अथाह समुंदर मे गोते लगाते देखा जा सकता है , वही पुरुष उसके अंत करण मे जाने कितने यहा वहा बिखरे खारे पानी के मोतियो को समेट कर माला गूँथने मे असफल रहा है ।प्राचीन काल से आज तक मे चाहे जीतने युग बदले हो मगर प्रेम का यह स्वरूप नहीं बदला...क्योकि आज भी प्रेम की कृष्ण बिना अधूरी है ... अब जहा प्रेम है वहा या तो मिलन होगा या विरह .. कृष्ण ने अपने पूरे जीवन काल में अपनी अपनी लीला दिखाई परंतु फिर क्यो राधा को अकेला छोड़ कर मथुरा चले गए ... वजह मिलन से भी उच्च होता है विरह ।
विरह मे ही प्रेम की उच्च कोटी की भावना छिपी होती है यहा प्रेमीसिर्फ प्रेम करता है अपने प्रेम के बदले उसे कुछ नहीं चाहिए ।
अब इसी प्रेम की तुलना आज के प्रेम से कीजिये - पति - पत्नी मे प्रेम है मगर यहा भी कुछ स्वार्थपरता जुड़ी है जब तक एक स्वार्थ है प्रेम खींचता चला जाता है जब लक्ष्य अलग होते है तो अलगाव शुरू हो जाता है इसे हम विरह तो ना कहेंगे । मगर फिर भी क्यो प्रेम का अस्तित्व आज भी मौजूद है धरती पर ... प्रश्न यू ही रहेगा उत्तर आप खोजिए ।
विरह मे ही प्रेम की उच्च कोटी की भावना छिपी होती है यहा प्रेमीसिर्फ प्रेम करता है अपने प्रेम के बदले उसे कुछ नहीं चाहिए ।
अब इसी प्रेम की तुलना आज के प्रेम से कीजिये - पति - पत्नी मे प्रेम है मगर यहा भी कुछ स्वार्थपरता जुड़ी है जब तक एक स्वार्थ है प्रेम खींचता चला जाता है जब लक्ष्य अलग होते है तो अलगाव शुरू हो जाता है इसे हम विरह तो ना कहेंगे । मगर फिर भी क्यो प्रेम का अस्तित्व आज भी मौजूद है धरती पर ... प्रश्न यू ही रहेगा उत्तर आप खोजिए ।
शनिवार, 3 दिसंबर 2011
यह नारी..
जलावर्त के ठेठ भीतर के भवरमे -
घुमराते अंधेरो में-
घर-गृहस्थी-
बंधी -संबंधी
रश्मो -रिवाज़ों
और
पति-पुत्रो में खूपी हुई
कुल बुलाती देखी मैंने नारी !
संवेदना शीलताके फेविकोलसे चिपकाये
लगावो के जोड़ों को वह काट नहीं पाती है कभी भी-
क्यों की वह 'आरी' नहीं हो पाती है-
संधि है यह ;नारी'
शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011
'मेरी सहेली'
'मेरी सहेली' तुम्हारा बहुत याद आना,
वो हमारी 'तिकड़ी' का मशहूर होना,
इक दूजे से कभी दूर न होना,
वो मेरा डायरी में लिखना कि 'अंजना बहुत स्वार्थी है'
और तुम्हारा पढ़ लेना..
'तब'
कितने सलीके से समझाए थे तुमने,
जिंदगी के 'सही मायने'..
'देखो न' मेरी डायरी के वो पन्ने,
कहीं गुम हो गए हैं...
'याद है'
वो होम साइंस का प्रैक्टिकल,
जब प्लास्टिक के डब्बे में,
गर्म घी डाला था हमने,
उसे पिघलता देख कितना डर गए थे तीनो...
'और फिर'
हंस पड़े थे, अपनी ही नादानी पर,
सोचा नहीं था,
कि हमारा साथ भी छूटेगा कभी,
पर हार गए हम,
'प्रकृति के' उस एक फैसले के आगे,
'अब तो'
रोज़ तारों में ढूंढती हूँ तुम्हे,
लेकिन इक बात कहूँ,
'सच्ची में' बहुत स्वार्थी थी तुम,
वर्ना क्यों जाती, 'अकेले',
हमें यूँ छोड़ कर....
आ जाओ न वापस..
'फिर चली जाना'..
जरा अपनी यादों को धूमील तो पड़ जाने दो..
उन पर वक़्त की धुल तो जम जाने दो...
(मेरी सहेली 'अंजना' को समर्पित)
बुधवार, 23 नवंबर 2011
राधा का गीत
मुज पर रोष न करना !
दिवस जलाता , निशा रुलाती,
मन की पीड़ा दिशा भुलाती
कितनी दूर सपन है तेरे
कितनी तपन मुझे जुलसाती
चलती हू , पर नहीं थकाना
जलती हू पर होश न हरना
मोहन,
मुझ पर रोष न करना !
इसी तपन ने आखे खोली
इसी जलन ने भर दी जोली
जब तुम बोले मौन रही मै
जब मौन हुए तुम , मै बोली
सहना सबसे कठीन मौन को
कहना है , खामोश न करना !
मोहन,
मुझ पर रोष न करना !
बुधवार, 16 नवंबर 2011
आपके जिगर से दूर न हो जाए कहीं आपके जिगर का टुकड़ा
शनिवार, 12 नवंबर 2011
एक अबोध बचपन
एक अबोध बचपन
एक धीमा बचपन
जो खुद में ढूंढता है
एक मासूम बच्चा
जिसका कोई उत्तर नहीं ...
मन का वो बच्चा जो
भागता है ,
नदी के बहाव के साथ साथ
कहीं दूर तक
बिन सोचे कि
ये कौन दिशा जाएगी
और वो दौड़ता
चला गया
साइकिल के पीछे
अपने कदमो की
गति के साथ
बिन अपने कदमो की
मिथ्या को पहचाने .....
बच्चे का मुखौटा बदला
उसने अपने 'स्व ' से
खिसकना बंद किया
ढांचा स्थिर हुआ
अचानक उसके चेहरे से
एक अजनबी चेहरा
प्रगट हुआ ...
जो क्रूर था ..अपनों
और गैरों के लिए
कुछ कठोर ,कुछ निर्दयी
कुछ अनजान ,कुछ परेशान सा
अपने ही वक़्त से
उसके मन का सरोवर
उसका ही कठोर ,
छिपा हुआ जलपुंज उसका
अपने ही
दर्प से जल रहा था ...
बच्चे का मुखौटा
फिर से बदला
वो अपने 'स्व 'के साथ
फिर से स्थिर हुआ
नयनो में अब मौन
की भाषा थी ....
आहट ,जर्जर ह्रदय था
उसने जीवन में ..
तब उसने
संतोष पाने का संकल्प किया
जब अपनों ने भी साथ छोड़ दिया
किसने उसे सुना ?
किस आवाज़ ने उसका उत्तर दिया ?
वो चीखा ...और किसी को
इसका पता नहीं चला ..
अकेलपन का भयानक चक्र
जब ऊपर उठा
तब....उसकी वापिसी हुई
एक अबोध बचपन
जो खुद में ढूंढता है
एक मासूम बच्चा
हमेशा ही अपने भीतर
एक अबोध बचपन .......
अनु ...
"दहेज दोषावली"
१)दहेज सु भलो सर्प बिस प्राण जाय इक बार..
दहेज बिस सुं मुइ कन्या जीते जी कइ बार..
२)वा नीचन तें नीच है, जो दहेज मांगन जाय.
उनते भी वा नीच है जो कन्या वासो परणाय..
३)धन मांगै निरस भये,रस बिनु उख मै काठ
काथ सु कन्या ब्याहदी, सुखी जीवन-बाट..
४)धिक धिक ! दहेजी दानवा! कितनी बलि तू खाय.
सौ सम रहिं न बिटिया सब कि तोहर भूख मिटाय
५) पोथा पढि पढि वर मुआ आयी न बुध्धि तोय
दुल्हन लाय दहेज बिनु सौ वर उत्त्म होय.
शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011
शनिवार, 22 अक्तूबर 2011
"दहेज दोषावली" (१)
दिन दिन अधम दहेजको कीड़ो विकसित होय.||
२)दहेज़ -दानव बहुरूपी ,विध विध रूप सजाय |.
फ्लेट,कार,बिदेश-व्यय, बेटी देत फसाय ||
३)दहेज़-दैत्य बसे जहां, बेटी तहा न देय.|
सुता-धन दोऊ खोयके बिपदा मोल न लेय.. ||
४)दे दहेज़ मरी मरी गए ,दुष्ट न भरियो पेट .|
ऐसे निठुर राखसका करै अगिन के भेंट||
५)वे मुआ नरकमा जाय , जेई लिनहो दहेज़.|
मुफ्त्खोरके कुल माहि बेटी कभी न भेज..||
गुरुवार, 15 सितंबर 2011
गुरुवार, 18 अगस्त 2011
i love my computer
.Are.. ramu is computer ko zara mere study room mai rakh do................. warna ye नीलिमा fir se इन्टरनेट ki nivia ban jayegi ...........................................
गुरुवार, 11 अगस्त 2011
शाम की सिहरन
चहकती उस वृक्ष पर, पंख फड़फड़ाती हुई
सोमवार, 8 अगस्त 2011
नसीब औरत का...
इक पल भी नहीं लगता, इंसान को हैवान बनते हुए....
इक आह सी निकलती है, जब कोई औरत जलाई जाती है,
कई - कई बार देखा है, दुपट्टे को कफ़न बनते हुए....
दर्द, दहशत, सब्र, हया, ये तो नारीत्व का हिस्सा हैं,
अक्सर सुनती हूँ लोगों को, यही प्रवचन कहते हुए....
कोई गवाह नहीं, न कोई हमख्याल है,
यूँ गुजरते हैं लोग, जैसे हर नज़र अनजान है...
क्यूँ भटकती है 'अनु', क्या तलाशती है नज़र,
कभी देखा है क्या, पत्थर को इंसान बनते हुए....
!!अनु!!
शनिवार, 6 अगस्त 2011
जख्म, तकदीर और मैं
जख्म भरता नहीं.. दर्द थमता नहीं,
कितनी भी कोशिश कर ले कोई,
तकदीर का लिखा मिटता नहीं ...
चलता ही रहता है, जिंदगी का सफ़र,
कोई किसी के लिए, यहाँ रुकता नहीं..
खुद ही सहने होंगे सारे गम,
किसी की मौत पर कोई मरता नहीं,
हंसने पर तो दुनिया भी हंसती है संग,
हमारे अश्को पर, कोई पलकें भिगोता नहीं ...
आज दर्द हद से गुजर जायेगा जैसे,
कोई बढ़कर साथ देता नहीं,
जिंदगी तुझसे गिला भी क्या करे,
वक़्त से पहले, तकदीर से ज्यादा,
किसी को कभी, मिलता भी नहीं ...
!!अनु!!
इक चंचल नदी थी वो..
'सुन्दर' जैसे 'परी' थी वो,
खिलती हुई कली थी वो,
सुन्दरता की छवि थी वो...
फिर एक दिन, कुछ ऐसा हुआ,
कैसे बताउँ, कैसा हुआ..
इक शिकारी दूर से आया,
उस गुडिया पर.. नज़र गड़ाया
उडती थी जो बागों में जा कर,
वो तितली अब गुमसुम पड़ी थी,
किस से कहती, दुख वो अपने,
सर पे मुसीबत भारी पड़ी थी,
ऐसे में एक राजा आया,
उस तितली से ब्याह रचाया,
बोला 'मैं सब सच जानता हूँ'
फिर भी तुम्हे स्वीकार करता हूँ..
जब थोडा वक़्त बीत गया तब,
राजा ने अपना रंग दिखाया,
मसला हुआ इक फूल हो तुम,
इन चरणों की धुल हो तुम..
जीती है घुट घुट कर 'तितली',
पीती है रोज़ जहर वो 'तितली'
'भगवन', के चरणों में 'ऐ दुनिया ,
मसला हुआ क्यूँ फूल चढ़ाया...
कहना बहुत सरल है 'लेकिन'
'अच्छा' बनना बहुत कठिन है,
'महान' बनना, बहुत आसान है'
मुश्किल है उसको, कायम रखना...
याद रखना, इक बात हमेशा,
सूखे और मसले, फूलों को,
देव के चरणों से दूर ही रखना,
फिर न बने एक और 'तितली'
फिर न बने इक और कहानी..
!!अनु!!
गुरुवार, 4 अगस्त 2011
मेरे भीतर अक्सर उठती है आवाजें ,
वोह जो तुम अपने लफ्जों से कह जाते हो ,
वोह फुसफुसाती जो तुम सरगोशी कर जाते हो ,
वोह लफ्ज़ जो जागते हैं भीतर मेरे नींद में भी ,
जो सो जाते हैं मेरे चिंतन में जागते हुए भी .................
वोह लफ्ज़ आज बिखरे हुए हैं सब तरफ मेरे सामान की भीड़ में ..
जरा ठहर तो साथी मेरे ............
जरा समेट लूं उनको अपने दामन में ..............
तेरे साथ बैठ कर एक नयी "कविता " जो लिखनी है मुझे ..~
- नीलिमा शर्मा
बुधवार, 3 अगस्त 2011
चाहत चक्रवात की...
चाहत चक्रवात की....!!!!
हो न हो मुझमे लेकिन,
भावनाए तो लहरों सी
उमड़ रही है...!!
लहरों की तरह
बहती है ये भी
निरंतर.....
छू के मेरे तन-मन को
ये मुझे भिगो रही है!!!
सिर्फ़ इन में भीग के
जीना नही चाहती मै,
चाहत मेरी की
इनमे तूफ़ान आए,
आए चक्रवात
और सुनामी!!
ताकि हो मन-मंथन मेरा
और विष-विचारो (विषयो)का
हो निकास..!!!
रह जाए मन में
भावनाओ का अमृत
और करू मै अपना आत्मविकास !
जीत के अपनी अंतरात्मा को
साक्षात्कार करू परमात्मा का,
पाकर उसकी स्नेहिल छाया
स्मरण करू अपने श्याम का!!...कविता राठी..
मंगलवार, 2 अगस्त 2011
मै आ सखी चुगली करे ( एक सुंदर कृति )
सोमवार, 1 अगस्त 2011
Intzaar
Intzaar
रविवार, 31 जुलाई 2011
बुधवार, 27 जुलाई 2011
रविवार, 24 जुलाई 2011
खाली सा लगता है
क्यों सब कुछ खाली सा लगता है..
आंखे भरी है आँसू ओ से फिर भी आँखो में शुन्यता
है ,
दिल है दर्द और ख़ुशी यो से भरा..
फिर भी दिल वीरान लगता है..
बाहों में जुल रही है कितनों की बाते..
जिसे गले लगाकर हम फिरते है पूरा दिन..
फिर भी एक अकेलापन सा लगता है..
जब भी तलाशती हुं खुद को..कभी अकेले में..
तो वो अकेलापन जैसे घुटन सा लगता है..
छोड़ दिया है अब खुद की परेशानियों को सोचना..
दिन रात जैसे जिंदगी का सिर्फ आना जाना लगता है..
नीता कोटेचा..
शुक्रवार, 22 जुलाई 2011
एक बार ओ मायड़ म्हारी..थारे पास बुला ले..!!
आवे हे जद
ओ सावण मास
मनडो म्हारो होवे
घणो उदास..!!
आंख्या राह निहारे
हियंडो थाने पुकारे
एक बार ओ
मायड़ म्हारी..
थारे पास बुला ले..!!
सावणीये री तीज आई...
आंख्या म्हारी यूँ भरी..
ज्यूँ भरे सावण में
गाँव री तलाई..!!
मायड़ म्हारी!!
काई बताऊँ थाने..
अवलु थारी कत्ती आई..!!
कित्ती सोवणी लागती
वा मेहँदी भरी कलाई
रंग बिरंगी चुडिया
भर भर के सजाई..!!
लहराता लहरिया सावण में
मांडता हींडा बागां में..
झूलती सहेल्यां साथ
आ लाडेसर थारी जाई..!!
आंवतो राखडली रो तींवार
भांव्तो बीराजी रो लाड
हरख कोड में आगे लारे
घुमती भुजाई..!!
ओ बीराजी म्हाने
आप री अवलु घणी आई..!!
जोउं बाट बारे मास...
सिंजारे में माँ बनावती
पकवान बड़ा ही खास..!!
तीजडली रो सूरज उगतो..
बनता सातुडा अपार
कजली पूजता आपा सगळा..
तले री पाळ में खोस
नीमडी-बोरडी री डाळ..!!
जवारा री पूजा करने
पिंडा पूजता..
दीपक जलायणे तले में..
सोनो..रूपों..चुन्दडी निरखता..
बाबोसा बेठने डागोल
बाट चान्दलिये री जोंवता..
आंवतो चांदो..खुशिया लान्वतो..
हरख सगळा रो मन में ना मांव्तो
अरग दे पिंडा परासता..
बातां सगळी आवे याद
ओ मायड़ म्हारी..
कई बताऊँ थाने हिन्वडे रो हाल..!!
आ तीजडली आप रे सागे
यादां घणी लाइ..
ओ बाबोसा म्हारा..म्हाने
आप री अवलु घणी आई..!!!कविता राठी..
गुरुवार, 21 जुलाई 2011
दिन ढलने से पहले वक़्त पलट देता है पासा ,
वक़्त दे जाता है मौत ,हम रह जाते हैं मौन ,
बस यही सोचकर कि,
एक दिन मन उम्मीद कि विजय पताका फहराएगा ,
और उस दिन हम जीत जायेंगे ,
और वक़्त हमसे हार जाएगा ,
वक़्त से जीतने का मुझे बेसब्री से इंतज़ार है ,
अब भी मुझे अपने मन कि हार से इनकार है ,
मन में उठती है रोज़ एक उम्मीद एक नई आशा ****
बस ठहराव की कमी है ,
कभी सवालों क तूफां है ,
कभी विचारों की सुनामी ,
दुनिया के झमेले ,हर वक़्त आँखों में नमी है ,
दिल के गहरे सागर में ...........
अहसास दिल के बेअसर हों जैसे ,
ना गम में उदास होता है ,
ना खुशियों में ख़ुशी है ,
कहने को तो ज़िंदा भी हैं हम ,
बस जिंदगी की कमी है ,
दिल के गहरे सागर में *बस ठहराव की कमी है **
मुस्कराहट मेरी.....!!!
पल पल मेरा साथ निभाती...
मुस्कराहट मेरी...!!!
अहसासों की प्यास बुझा कर
जीने की उम्मीद जगाती..,
आंसुओ के घूंट पी कर..
जलन सीने की मिटाती
मुस्कराहट मेरी..!
मौसम के साथ चलकर
ठण्ड धुप और बारिश सहकर
जिन्दगी के आंधी तुफानो
से मुझे है बचाती..
मुस्कराहट मेरी..!!
सब कुछ सहकर
हंसती रहकर
है मुझे भी हंसाती
जीने की उम्मीद जगाती
मुस्कराहट मेरी..!!
ना गिला इसे किसी से..
ना कभी किसी से शिकवा..
मुझमे रह कर..मेरी बनकर..
पल पल मेरा साथ निभाती..
मुस्कराहट मेरी..!!!..कविता..
सोमवार, 18 जुलाई 2011
आभासी दुनिया से सच की जमीन पर कुछ पल
शुक्रवार, 15 जुलाई 2011
शनिवार, 9 जुलाई 2011
बस एक ख्वाब और...
मैं एक स्त्री हूँ
- स्त्री जीवन के विभिन्न चरण
...जन्म....
लो जी मेरा जन्म हुआ..
माहौल कहीं कुछ ग़मगीन हुआ..
किसी ने कहा लक्ष्मी जी आई हैं ...
खुशियों की सौगात साथ लायी हैं !
घर में थी इक बूढी माता ...
तिरछी निगाह करके उन्होंने माँ को डांटा !
माँ की कोख को कोसने लगी ...
मुझे मेरे पिता के सिर का बोझ कहने लगी !
.....बचपन.....
अब कुछ बड़ी हो गयी हूँ ...
कुछ-कुछ बातें अब समझने लगी हूँ..
माँ मुझे धूप में खेलने नहीं देती...
काली हो जाओगी , फिर शादी नहीं होगी ये कहती...
भइया तो दिन भर अकेला घूमता..
मुझे मेरी माँ ने कभी न अकेला छोड़ा...
रहते थे एक सज्जन पड़ोस में...
इक दिन माँ ने मुझे देखा उनकी गोद में...
घर लाकर मुझे इक थप्पड़ लगाया..
बाद में मुझे फिर गले से लगाया...
मेरी नाम आँखों ने माँ से प्रश्न किया..
मेरी आँखों को मेरी माँ ने समझ लिया..
गंदे हैं वो बेटा , मुझसे माँ ने ये कहा..
नहीं समझी मैं उनकी बात..
पर माँ पर था मुझे पूरा विश्वास !
.. युवा वस्था ....
अब मैं यौवन की देहलीज पे हूँ..
अच्छा-बुरा बहुत कुछ जान गयी हूँ..
कुछ अरमान हैं दिल में, मन ही मन कुछ नया करने की सोच रही हूँ...
माँ ने सिखाई कढाई-बुनाई ...
और सिखाया पकवान बनाना ...
तुम तो हो पराया धन तुम्हे है दूजे घर जाना...
करती गयी मैं सब उनके मन की..
दबाती गयी इच्छाएं अपने मन की !
...... विदाई ....
चलो ये भी घडी अब आई ...
होने लगी अब मेरी विदाई ...
बचपन से सुनती आई थी...
जिस 'अपने' घर के बारे में....
चली हूँ आज उस 'अपने' घर में..
सासू जी को मैंने माँ माना ...
ससुर जी को मैंने पिता माना ...
देवर लगा मुझे प्यारा भाई जैसा ..
ननद को मैंने बहन माना ...
पति को मैंने परमेश्वर माना ...
तन-मन-धन सब उन पर वारा !
......मातृत्व .....
सबसे सुखद घड़ी अब आई ....
आँचल में मेरे एक गुड़िया आई ....
फूली नहीं समाई मैं उसे देखकर...
ममता क्या होती है, जान गयी उसे पाकर...
सोये हुए अरमान एक बार फिर जागे .......
संकल्प लिया मन में, जाने दूँगी उसे बहुत आगे ...
सच हुआ मेरा सपना अब तो...
कड़ी है अपने पैरों पर अब वो ....
.... प्रौढ़ावस्था ...
उम्र कुछ ढलने लगी अब तो ...
कुछ अकेलापन भी लगने लगा अब तो ...
आँखें भी कुछ धुंधला गयी हैं ..
झुर्रियां भी कुछ चेहरे पे आ गयी हैं...
जो कभी पास थे मेरे, वो अब दूर होने लगे हैं ...
तनहाइयों में मुझे अकेला वो सब छोड़ने लगे हैं...
हद तो तब हो गयी जब मैंने ये सुना...
जिन के लिए न्योछावर तन-मन किया....
उन्होंने ही मुझसे ये प्रश्न किया ..
की तुमने मेरे लिए क्या है किया...
थक गयी हूँ, हार गयी हूँ मैं अब...
बहुत ही निराश हो गयी हूँ मैं अब...
मुड जो देखती हूँ पीछे ..
मजबूर हो जाती हूँ ये सोचने पर ..
कौन थी मैं?कौन हूँ मैं?क्या है मेरा वजूद?
यही सोच-सोच कर अब इस दुनिया से चली बहुत दूर !
शुक्रवार, 8 जुलाई 2011
मृगमरीचिका नहीं हैं खुशियाँ
सफ़र है कठिन
इन् बाधाओं से तुम्हें अकेले ही लड़ना होगा
न बनो इतने लाचार
ढेरो खुशियाँ फूल बनी बिखरी हैं राहों में
कुछ चुनकर इनमें से ..
महका लो अपना जीवन
कर लो अपने अधूरे सपने को साकार
खता नहीं है कोई ,फूलों से सुगंध चुराना ...
और बादल का इक टुकड़ा अपनाकर उसमें भीग जाना
मृगमरीचिका नहीं हैं खुशियाँ
इनको हासिल कर ..
अपने जीवन के हर पल को ..
जी भरकर जी लो .......
मुझे एक याद आती है
क्षितिज की नारंगी किरणे
जब धरा को सहलाती है
मुझे एक याद आती है
जेठ ,अषाढ़ की तपन के बाद
जब सावन की ऋतु आती है
घनघोर बदरिया छाती है
मुझे एक याद आती है
पतझड़ की आंधी के बाद
अंगड़ाई लेती दरख़्त पर
जब नयी कोपलें आती हैं
मुझे एक याद आती है
सर्द सर्द रातों में
ठिठुरन को दूर करती जब
चाँद की शीतल तपिश तपाती है
मुझे एक याद आती है
सबका इंतजार ख़त्म हुआ देख
मेरे ह्रदय को बहुत तडपाती है
मेरी आँखों की नमी
हर पल आभास तुम्हारा करातीं हैं
मुझे एक याद आती है ..... शोभा
मंगलवार, 5 जुलाई 2011
आ सखी चुगली करे
चुगली शब्द नेगेटिव सेन्स देता है
यदि ब्लॉग का नाम होता' आ सखी बुराई करे "...तो ..यहाँ नेगेटिव सेन्स आ सकता था चुगली शब्द कुछ अलग हट कर करने को प्रेरित करता है , " चुगली'' --- वो है जो करने के बाद दिल हल्का हो
दिमाग का खुल कर इस्तेमाल हो ,यह वह कला है जिसमे पारंगत होना हरेक के बस में नहीं ,जहा इसमें इमली सा खट्टापन होता है तो कही चाट सा चटपटापन ..आपकी .कुछ ऐसी बाते भी सामने आये जो आपको दुसरो से जुदा बनाती हो
...अब यह तो आप सभी पर निर्भर करता है की आप इस ब्लॉग का कितना और कैसे उपयोग करती है ,,,मैंने अपनी तरफ से सभी सखियों को'" सखी "का दर्जा देकर उन्मुक्त उड़ने की जगह भर दिखाई है जहा हम सब मिल कर कई रंगों से रंगा सपना देखे, कभी आसमान छूने का तो कभी कल-कल बहती नदिया कि लहरे बन कर समुंदर में गोते लगाने का तो क्यों ना इस इन्द्र धनुषी झूले में हम सब मिल कर बैठे और गाये
...सखी रे आ बावरी चुनरिया ओढ़े..
सोमवार, 4 जुलाई 2011
शनिवार, 2 जुलाई 2011
गौरवान्तित हु..."नारी हु मै.."
कविता राठी..