शनिवार, 3 दिसंबर 2011

यह नारी..

नदी की उफनती बाढ़मे  
जलावर्त के ठेठ भीतर के भवरमे - 
घुमराते अंधेरो में- 
घर-गृहस्थी- 
बंधी  -संबंधी 
  रश्मो -रिवाज़ों 
और  
पति-पुत्रो में खूपी हुई
कुल बुलाती देखी मैंने  नारी ! 
संवेदना शीलताके फेविकोलसे चिपकाये 
लगावो के  जोड़ों को वह  काट नहीं पाती है कभी भी- 
क्यों की वह 'आरी' नहीं हो पाती है- 
संधि है यह ;नारी'

http://harsinngar.blogspot.com/

3 टिप्‍पणियां:

सखियों आपके बोलों से ही रोशन होगा आ सखी का जहां... कमेंट मॉडरेशन के कारण हो सकता है कि आपका संदेश कुछ देरी से प्रकाशित हो, धैर्य रखना..