शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011
बुधवार, 28 दिसंबर 2011
एक अभिव्यक्ति -----
१-अधर नज़दीक थे जब अधरों के , वो पल मुझको ऐसे भाये
चाहा बहुत रोकना दिल को,चाहत दिल की रोक ना पाए !!
२-गया ठहर समय पल भर को, संगम हुआ जो अधरों का
लगा जेठ के मौसम में , शीतल बयार का एक झोका !!
३-आँखे भी कुछ बोला करती ,शब्द कर सके जो न व्यक्त
आकर के कर दो कुछ ऐसा ,नस -नस में लगे दौड़ता रक्त !!
४-स्पर्श किया हल्का सा तुमने ,लगा दहकता मुझको तन
सोयी चाहत जाग उठी और, व्याकुल हो गया अपना मन
५-स्पर्श प्रथम तेरे अधरों का , विस्मृत ना हो पायेगा
याद आयेगा जब भी वो क्षण , खुमार नया फिर छायेगा !!
१-अधर नज़दीक थे जब अधरों के , वो पल मुझको ऐसे भाये
चाहा बहुत रोकना दिल को,चाहत दिल की रोक ना पाए !!
२-गया ठहर समय पल भर को, संगम हुआ जो अधरों का
लगा जेठ के मौसम में , शीतल बयार का एक झोका !!
३-आँखे भी कुछ बोला करती ,शब्द कर सके जो न व्यक्त
आकर के कर दो कुछ ऐसा ,नस -नस में लगे दौड़ता रक्त !!
४-स्पर्श किया हल्का सा तुमने ,लगा दहकता मुझको तन
सोयी चाहत जाग उठी और, व्याकुल हो गया अपना मन
५-स्पर्श प्रथम तेरे अधरों का , विस्मृत ना हो पायेगा
याद आयेगा जब भी वो क्षण , खुमार नया फिर छायेगा !!
कुंए में .....१
ठोक दी गई हैं कीलें
समय में, कि
कील दिया है हमें
इस समय ने
अब यहाँ
सरसों नहीं फूलती
धरती को छोड़ दिया
यूँ ही उजड़ने के लिए
हवा भी खो बैठी है
अपनी महक
विदेशी परफ्यूम की
गंध में
रात दिन
सीमेंट के बंद डिब्बों में
रेंगते हुए
क्या जान पा रहे हैं
किस साजिश के तहत
डाल दिए गए हैं
किन्हीं कुओं में
समय में, कि
कील दिया है हमें
इस समय ने
अब यहाँ
सरसों नहीं फूलती
धरती को छोड़ दिया
यूँ ही उजड़ने के लिए
हवा भी खो बैठी है
अपनी महक
विदेशी परफ्यूम की
गंध में
रात दिन
सीमेंट के बंद डिब्बों में
रेंगते हुए
क्या जान पा रहे हैं
किस साजिश के तहत
डाल दिए गए हैं
किन्हीं कुओं में
रविवार, 25 दिसंबर 2011
प्रेम - आज के परिपेक्ष्य मे
यूँ तो ना गयी वहाँ, कोई खबर.. पर आहों के खामोश असर
पैगाम हुए ......बदनाम हुए ..
यूँ तो ना दिए , कुछ सुख हमको .. पर उनसे जो पहुचें दुख हमको
इनाम हुए ..बदनाम हुए
जब होने लगे ये हाल अपने .. शब रोशन साफ़ खयाल अपने
इबहाम हुए .....बदनाम हुए
इतने गहराई लिए शब्द सेतु ... क्या पढ़ कर अनायास ही यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसे रचने के लिए किस कदर का प्रेम महसूस किया होगा नायिका ने
"प्रेम " जिसे कबीर ने ढाई अक्षर मे खोजने को कहा , और जाने कितनी हजारो कालजयी कृतिया प्रेम पर उतार दी गयी , मगर लगता है शब्द रचना से इसे पूर्ण समेटा ना जा सकेगा कभी । मगर कृष्ण ने इस पर पूरी कृष्ण लीला ही रच दी ,
प्रेम को छु लेने का साहस जो कृष्ण ने किया वो युगो युगो तक कोई पुरुष ना कर पाया कृष्ण को इसीलिए सम्पूर्ण युग पुरुष की संज्ञा से नवाजा गया है । नीति विशेषज्ञ कृष्ण ने प्रेम मे कोई नीति निर्धारित ना की मगर क्या वे राधा की विरह को उतनी गहराई से समझ पाये , कुछ का मानना है नहीं , वे इसे समझते तो राधा को इस तरह विरह के जंगल मे झुलसने ना देते । मगर कुछ इस प्रेम को देह के परे मान कर राधा की विरह बेला को भी कृष्ण लीला मे समाहित कर गए ।
मगर क्या किसी ने सोचा है आज भी हजारो ,लाखो नारिया अपने जीवन काल मे राधा स्वरूप को जी रही है , चाहे वो पत्नी रूप मे है या प्रेमिका ... प्रेम तो दोनों करती है अपने नायक से ... तभी तो जहा रिश्ते मे प्रेम है वहा आज भी कृष्ण और राधा स्वरूप आमने सामने आते है , तब आज भी हर स्त्री पुरुष बंधन अपनी एक अलग कहानी रचता है ,अत जहा प्रेम है वहा वेदना है जहा वेदना है वहा पहले दुख , फिर तकलीफ और फिर विरह घर बनाते जाते है , इसीलिए जहा हर नारी को उदासी के उस अथाह समुंदर मे गोते लगाते देखा जा सकता है , वही पुरुष उसके अंत करण मे जाने कितने यहा वहा बिखरे खारे पानी के मोतियो को समेट कर माला गूँथने मे असफल रहा है ।प्राचीन काल से आज तक मे चाहे जीतने युग बदले हो मगर प्रेम का यह स्वरूप नहीं बदला...क्योकि आज भी प्रेम की कृष्ण बिना अधूरी है ... अब जहा प्रेम है वहा या तो मिलन होगा या विरह .. कृष्ण ने अपने पूरे जीवन काल में अपनी अपनी लीला दिखाई परंतु फिर क्यो राधा को अकेला छोड़ कर मथुरा चले गए ... वजह मिलन से भी उच्च होता है विरह ।
विरह मे ही प्रेम की उच्च कोटी की भावना छिपी होती है यहा प्रेमीसिर्फ प्रेम करता है अपने प्रेम के बदले उसे कुछ नहीं चाहिए ।
अब इसी प्रेम की तुलना आज के प्रेम से कीजिये - पति - पत्नी मे प्रेम है मगर यहा भी कुछ स्वार्थपरता जुड़ी है जब तक एक स्वार्थ है प्रेम खींचता चला जाता है जब लक्ष्य अलग होते है तो अलगाव शुरू हो जाता है इसे हम विरह तो ना कहेंगे । मगर फिर भी क्यो प्रेम का अस्तित्व आज भी मौजूद है धरती पर ... प्रश्न यू ही रहेगा उत्तर आप खोजिए ।
विरह मे ही प्रेम की उच्च कोटी की भावना छिपी होती है यहा प्रेमीसिर्फ प्रेम करता है अपने प्रेम के बदले उसे कुछ नहीं चाहिए ।
अब इसी प्रेम की तुलना आज के प्रेम से कीजिये - पति - पत्नी मे प्रेम है मगर यहा भी कुछ स्वार्थपरता जुड़ी है जब तक एक स्वार्थ है प्रेम खींचता चला जाता है जब लक्ष्य अलग होते है तो अलगाव शुरू हो जाता है इसे हम विरह तो ना कहेंगे । मगर फिर भी क्यो प्रेम का अस्तित्व आज भी मौजूद है धरती पर ... प्रश्न यू ही रहेगा उत्तर आप खोजिए ।
शनिवार, 3 दिसंबर 2011
यह नारी..
नदी की उफनती बाढ़मे
जलावर्त के ठेठ भीतर के भवरमे -
घुमराते अंधेरो में-
घर-गृहस्थी-
बंधी -संबंधी
रश्मो -रिवाज़ों
और
पति-पुत्रो में खूपी हुई
कुल बुलाती देखी मैंने नारी !
संवेदना शीलताके फेविकोलसे चिपकाये
लगावो के जोड़ों को वह काट नहीं पाती है कभी भी-
क्यों की वह 'आरी' नहीं हो पाती है-
संधि है यह ;नारी'
जलावर्त के ठेठ भीतर के भवरमे -
घुमराते अंधेरो में-
घर-गृहस्थी-
बंधी -संबंधी
रश्मो -रिवाज़ों
और
पति-पुत्रो में खूपी हुई
कुल बुलाती देखी मैंने नारी !
संवेदना शीलताके फेविकोलसे चिपकाये
लगावो के जोड़ों को वह काट नहीं पाती है कभी भी-
क्यों की वह 'आरी' नहीं हो पाती है-
संधि है यह ;नारी'
http://harsinngar.blogspot.com/
शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011
'मेरी सहेली'
आज रह - रह कर तुम्हारे ख्याल का जेहन में कौंध जाना..
'मेरी सहेली' तुम्हारा बहुत याद आना,
वो हमारी 'तिकड़ी' का मशहूर होना,
इक दूजे से कभी दूर न होना,
वो मेरा डायरी में लिखना कि 'अंजना बहुत स्वार्थी है'
और तुम्हारा पढ़ लेना..
'तब'
कितने सलीके से समझाए थे तुमने,
जिंदगी के 'सही मायने'..
'देखो न' मेरी डायरी के वो पन्ने,
कहीं गुम हो गए हैं...
'याद है'
वो होम साइंस का प्रैक्टिकल,
जब प्लास्टिक के डब्बे में,
गर्म घी डाला था हमने,
उसे पिघलता देख कितना डर गए थे तीनो...
'और फिर'
हंस पड़े थे, अपनी ही नादानी पर,
सोचा नहीं था,
कि हमारा साथ भी छूटेगा कभी,
पर हार गए हम,
'प्रकृति के' उस एक फैसले के आगे,
'अब तो'
रोज़ तारों में ढूंढती हूँ तुम्हे,
लेकिन इक बात कहूँ,
'सच्ची में' बहुत स्वार्थी थी तुम,
वर्ना क्यों जाती, 'अकेले',
हमें यूँ छोड़ कर....
आ जाओ न वापस..
'फिर चली जाना'..
जरा अपनी यादों को धूमील तो पड़ जाने दो..
उन पर वक़्त की धुल तो जम जाने दो...
(मेरी सहेली 'अंजना' को समर्पित)
'मेरी सहेली' तुम्हारा बहुत याद आना,
वो हमारी 'तिकड़ी' का मशहूर होना,
इक दूजे से कभी दूर न होना,
वो मेरा डायरी में लिखना कि 'अंजना बहुत स्वार्थी है'
और तुम्हारा पढ़ लेना..
'तब'
कितने सलीके से समझाए थे तुमने,
जिंदगी के 'सही मायने'..
'देखो न' मेरी डायरी के वो पन्ने,
कहीं गुम हो गए हैं...
'याद है'
वो होम साइंस का प्रैक्टिकल,
जब प्लास्टिक के डब्बे में,
गर्म घी डाला था हमने,
उसे पिघलता देख कितना डर गए थे तीनो...
'और फिर'
हंस पड़े थे, अपनी ही नादानी पर,
सोचा नहीं था,
कि हमारा साथ भी छूटेगा कभी,
पर हार गए हम,
'प्रकृति के' उस एक फैसले के आगे,
'अब तो'
रोज़ तारों में ढूंढती हूँ तुम्हे,
लेकिन इक बात कहूँ,
'सच्ची में' बहुत स्वार्थी थी तुम,
वर्ना क्यों जाती, 'अकेले',
हमें यूँ छोड़ कर....
आ जाओ न वापस..
'फिर चली जाना'..
जरा अपनी यादों को धूमील तो पड़ जाने दो..
उन पर वक़्त की धुल तो जम जाने दो...
(मेरी सहेली 'अंजना' को समर्पित)
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