गुरुवार, 4 अगस्त 2011

एक कविता लिखनी है

मेरे भीतर अक्सर उठती है आवाजें ,
वोह जो तुम अपने लफ्जों से कह जाते हो ,
वोह फुसफुसाती जो तुम सरगोशी कर जाते हो ,
वोह लफ्ज़ जो जागते हैं भीतर मेरे नींद में भी ,
जो सो जाते हैं मेरे चिंतन में जागते हुए भी .................

वोह लफ्ज़ आज बिखरे हुए हैं सब तरफ मेरे सामान की भीड़ में ..
जरा ठहर तो साथी मेरे ............
जरा समेट लूं उनको अपने दामन में ..............
तेरे साथ बैठ कर एक नयी "कविता " जो लिखनी है मुझे ..~

- नीलिमा शर्मा 

5 टिप्‍पणियां:

  1. वोह लफ्ज़ जो जागते हैं भीतर मेरे नींद में भी ,
    जो सो जाते हैं मेरे चिंतन में जागते हुए भी .................

    बहुत उम्दा...

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  2. neeli...
    le ruk gai...likh le mujhe...:))

    jokes apart...Neeli..very well written....B'ful xpression...

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  3. जरा ठहर तो साथी मेरे ............
    जरा समेट लूं उनको अपने दामन में .............. ati sundar...

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  4. लफ्जो को समेटने की कोशिश अच्छी बन पड़ी है नीलिमा जी

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सखियों आपके बोलों से ही रोशन होगा आ सखी का जहां... कमेंट मॉडरेशन के कारण हो सकता है कि आपका संदेश कुछ देरी से प्रकाशित हो, धैर्य रखना..